वास्तु शास्त्र के अनुसार वायव्य दिशा का विस्तार 292.5 अंशों से 337.5 अंशों तक होता है और इस दिशा के स्वामी वायु देव हैं जबकि आधिपत्य केतु के पास है। यह दिशा वायु प्रधान कार्यों और अस्थिर कार्यों के लिए अनुकूल है। इस दिशा में कभी भी गृह स्वामी का कक्ष नहीं होना चाहिए अन्यथा वह घर से बाहर ही रहेगा। वह घुमक्कड़ प्रवृत्ति का होगा और उसके मित्रों की संख्या अधिक होगी। इस दिशा में अतिथि कक्ष, ड्राइंग रूम, अविवाहित कन्या का कक्ष और रोगी का कक्ष बनाना उचित रहता है। यानी ड्राइंग रूम में जो मेहमान आएगा वह शीघ्र वापस चला जाएगा। यदि कन्या अविवाहित है तो उसकी शादी जल्दी हो जाएगी। यदि इस दिशा में रोगी को सुलाया जाए तो वह शीघ्र स्वास्थ्य लाभ होगा। ‘वायव्ये पशु मन्दरिम्’ इस सूक्ति के अनुसार इस स्थान पर पशुओं को रखने का स्थान, गाड़ी की पार्किंंग का स्थान और गार्ड रूम बनाने शुभ होते हैं। इस दिशा में तिजोरी नहीं रखनी चाहिए। स्थायी प्रॉपर्टी के कागज और आभूषण भी इस दिशा में रखने शुभ नहीं होते। ऐसा करने पर रखा हुआ धन खर्च हो जाएगा।
यदि प्लॉट में रसोई बनाने का स्थान अग्नि कोण में ना मिल रहा हो तो वायव्य कोण में बना सकते हैं। चूंकि भारत में अधिकतर उत्तर-पश्चिम या दक्षिण-पूर्वी हवा चलती है। प्राचीन काल में मानसून के आधार पर ही रसोई का निर्माण किया जाता था ताकि धुआं बाहर निकल जाए। वायव्य दिशा में शौचालय, स्नानघर, स्टोर भी बना सकते हैं। इस दिशा में वायु का प्रभाव अधिक रहता है। इसलिए यहां पर अस्थिर चित्त वाले, शंकालु लोग और राष्ट्रीय सुरक्षा में लगे लोगों का शयन स्थल नहीं होना चाहिए। इस दिशा में नव दंपत्ति का कक्ष भी नहीं होना चाहिए। यहां रहने वाले व्यक्ति हमेशा घर के बाहर ही रहते हैं। कारण चाहे जॉब हो या व्यापार। इस दिशा में घर का मुख्य द्वार हो सकता है। जिन लोगों का मूलांक आठ या पांच है उनके लिए यह दिशा शुभ मानी गई है। पश्चिममुखी भवन में द्वार के लिए यह दिशा सर्वोत्तम मानी गई है। वास्तु में बीमार लोगों के लिए यह दिशा नवजीवन मानी गई है। इस दिशा में पालतु पशु, कुत्ता और खरगोश को रखना भी उत्तम रहता है।