मुंबई। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले जब उद्धव ठाकरे अपनी चुनावी रैलियों में यह कहते घूमते थे कि वह मंत्रालय पर भगवा ध्वज फहराकर एवं शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर अपने पिता बालासाहब ठाकरे का सपना पूरा करेंगे, तो किसी को उनके इस कथन पर भरोसा नहीं होता था, क्योंकि उन दिनों पूरे राज्य में झंडा तो उनके सहयोगी दल भाजपा का फहरा रहा था। अन्य दलों से आनेवालों की ‘मेगा भर्ती’ तो भाजपा में चालू थी।
उद्धव की यह बात इसलिए भी किसी के गले नहीं उतरती थी, क्योंकि उन्हें कभी भी राजनीति का कुशल खिलाड़ी माना ही नहीं गया। फोटोग्राफी में रुचि रखने वाले 59 वर्षीय उद्धव ठाकरे के मुखर सिपहसालार संजय राउत द्वारा रोज सुबह पौने दस बजे अपने निवास पर मीडिया से बात करते वक्त यह दोहराना कि मुख्यमंत्री तो शिवसेना का ही बनेगा, भी लोगों के गले नहीं उतरता था क्योंकि शिवसेना के पास मुख्यमंत्री बनाने लायक संख्या ही नहीं थी। कुल 56 विधायक चुनकर आए थे। कांग्रेस-राकांपा से उसका जन्मों का छत्तीस का आंकड़ा था। लोग चार दिन पहले तक यही मान रहे थे कि भाजपा का कोई वरिष्ठ नेता यदि उद्धव ठाकरे के निवास ‘मातोश्री’ जाकर उनका अहं ठंडा कर दे तो वह उपमुख्यमंत्री पद पर भी मान जाएंगे और ‘सरकार तो भाजपा-शिवसेना की ही बनेगी’।
इस बार जब उद्धव ने अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को विधानसभा चुनाव लड़वाने का निश्चय किया तो भी यही माना गया कि उद्धव अपने पुत्र को मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री की कुर्सी दिलवाना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें धृतराष्ट्र की उपाधि से भी नवाजा जाने लगा। लेकिन जैसे-जैसे भाजपा-शिवसेना के बीच तनाव बढ़ता जा रहा था, वैसे-वैसे उद्धव का संकल्प भी दृढ़ होता जा रहा था। जब पहली बार 11 नवंबर को वह राकांपा अध्यक्ष शरद पवार से मिलने बांद्रा के एक होटल में पहुंचे तो इस मुलाकात ने सत्ता के लिए लड़ने का संकल्प और मजबूत कर दिया।