मुंबई। बात सितंबर 1999 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद की है। महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हुए थे। मतदान सितंबर में हो चुका था। चुनाव परिणाम अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में आने थे। यह चुनाव शिवसेना- भाजपा लड़ीं भी गठबंधन में ही थीं और दोनों के बीच कड़वाहट भी आज जैसी ही थी। दूसरी ओर शरद पवार कांग्रेस से कुछ माह पहले ही अलग होकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन कर चुके थे और अपनी ताकत पर कांग्रेस सहित शिवसेना-भाजपा गठबंधन के विरुद्ध चुनाव लड़े थे।
उन्हीं दिनों महाराष्ट्र में चुनाव परिणाम आने से पहले भाजपा के दिग्गज नेता प्रमोद महाजन से एक पत्रकार ने पूछा कि महाराष्ट्र में किसकी सरकार बनने जा रही है? महाजन का जवाब था- जिन दो दलों को मिलाकर सरकार बनाने लायक 145 की संख्या हो रही होगी, वे मिलकर सरकार बना लेंगे। महाराष्ट्र के एक बड़े भाजपा नेता से इस तरह के जवाब की अपेक्षा नहीं थी, क्योंकि शिवसेना-भाजपा गठबंधन करके चुनाव लड़े थे। पत्रकार का अगला सवाल था- क्या शिवसेना-भाजपा अलग भी हो सकते हैं? बातचीत चूंकि दो लोगों में ही अंतरंग चल रही थी, इसलिए महाजन ने नि:संकोच प्रतिप्रश्न किया- क्यों नहीं हो सकते? पत्रकार का अगला सवाल था- क्या कांग्रेस-राकांपा भी साथ आकर सरकार बना सकते हैं? महाजन का जवाब था- बिलकुल। यहां कौन सा सोनिया गांधी मुख्यमंत्री बनने आ रही हैं। कांग्रेस-राकांपा मिलकर भी सरकार बना सकते हैं।
हालांकि उस समय 125 सीटें पानेवाले शिवसेना-भाजपा गठबंधन पर अलग-अलग लड़कर कुल 133 सीटें जुटानेवाली कांग्रेस-राकांपा भारी पड़ी और उनकी सरकार बनी, लेकिन भाजपा से शिवसेना के अलग होने की आशंका उस समय भी पवार को थी। चूंकि अगले 15 वर्षों तक शिवसेना-भाजपा को सत्ता नसीब नहीं हुई, इसलिए सत्ता के लिए झगड़ा भी नहीं हुआ। वर्ष 2014 में दोनों चुनाव से पहले अलग भी हुए तो केंद्र में अपने मंत्री से इस्तीफा नहीं दिलवाया और राज्य में फड़नवीस की सरकार बनने के एक माह के अंदर ही पुन: सरकार में शामिल हो गए। यानी गठबंधन टूटकर भी जारी रहा, लेकिन इस बार शिवसेना ने योजनाबद्ध तरीके से गठबंधन तोड़ा है। चुनाव से पहले ही विपक्षी दलों में जिस तरह की भगदड़ मची उससे स्पष्ट था कि राज्य में शिवसेना-भाजपा गठबंधन को जबर्दस्त सफलता मिलनेवाली है। इसी सफलता की उम्मीद में भाजपा-शिवसेना दोनों दलों में बागी उम्मीदवारों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ गई थी। 15 बागी उम्मीदवार तो अकेले भाजपा के ही चुनकर आए हैं। इससे दोगुने ऐसे हैं, जिन्होंने भाजपा उम्मीदवारों को हरवाने में बड़ी भूमिका निभाई और स्वयं अच्छे-खासे वोट बटोरे। उनके वोट भी भाजपा के ही थे। यदि ये सारे मत भाजपा के ही खाते में गए होते और बागी भी भाजपा में रहकर लड़े होते तो आज भाजपा अकेले शपथ ले चुकी होती, लेकिन ये बीती बातें हैं।
शिवसेना ने परिणाम आने के बाद से ही इस बार अपने तेवर इतने कड़े कर लिए थे कि भाजपा नेतृत्व भी आश्चर्य में था। शिवसेना नेता बार-बार भाजपा को उनके जिस वायदे की याद दिलाकर उन्हें झूठा साबित करने में लगे रहे, उसका जिक्र शिवसेना अध्यक्ष या उनके प्रवक्ता ने तब एक बार भी नहीं किया, जब उनके सामने ही अनेक सभाओं में प्रधानमंत्री सहित भाजपा के अन्य बड़े नेता देवेंद्र फड़नवीस को पुन: मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर रहे थे। ठाकरे खानदान के नौनिहाल आदित्य ठाकरे के पर्चा भरने के बाद उद्धव ठाकरे और देवेंद्र फड़नवीस की संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में भी जब आदित्य के मुख्यमंत्री बनने की चर्चा पर पत्रकारों ने सवाल किया तो स्वयं उद्धव ठाकरे का जवाब था कि जरूरी नहीं है कि पहली बार चुनाव जीतकर ही कोई बड़ा पद ले लिया जाए। तब यही माना गया था कि भाजपा से कम सीटें जीतने की स्थिति में शिवसेना आदित्य ठाकरे या अपने किसी अन्य विधायक को उपमुख्यमंत्री पद दिलाकर 1995 के शिवसेना-भाजपा फॉर्मूले के आधार पर सरकार चलाएगी व गठबंधन कायम रहेगा।