कहावत है कि गुस्से की आग पर धैर्य का ठंडा पानी डाल दो। क्रोध और जल का बड़ा गहरा संबंध है। दोनों की तासीर एक जैसी है। दोनों नीचे की ओर बहते हैं। अगर ऊपर उठाना हो तो प्रयास करना पड़ता है। इसीलिए आदमी क्रोध के मामले में यदि विचार करे तो पाएगा कि किसी और व्यक्ति और स्थिति का परिणाम उसने अपने ऊपर ले लिया।
थोड़ा-बहुत नुकसान खुद का किया और फिर इसे आगे स्थानांतरित कर दिया। पानी कभी अपने आप ऊपर नहीं चढ़ता, उसके लिए बहुत जोर लगाना होता है। वैसे ही गुस्से में इंसान के विचार गिरने लगते हैं। वो जो भी सोचता है, उसमें क्रोध समाहित होता है, लाभ और हानि का विचार नहीं रह जाता। इस कारण इंसान अपने विवेक से गिर जाता है। क्रोध के साथ बह जाता है। जैसे पानी अपने रास्ते में आने वाली चीजों को बहा ले जाता है, वैसे ही क्रोध भी इंसान को अपने साथ चलाता है।
भगवान राम और कृष्ण दोनों ही क्रोध के नियंत्रण के आदर्श उदाहरण हैं। कभी अनावश्यक क्रोध नहीं किया, जब तक संभव हो सका तब तक उसको सहन किया। बाहर व्यक्त नहीं होने दिया। जब लंका पर चढ़ाई के लिए समुद्र को लांघने की योजना बन रही थी, तो भगवान राम ने सभी से सलाह ली। विभीषण ने राय दी कि समुद्र से रास्ता मांगना चाहिए। सागर, सगर के वंशजों से जुड़ा है। सगर राम के पूर्वज थे। भगवान राम को सलाह पसंद आई कि पहले विनम्रता से रास्ता मांगना ही सही रहेगा। इस पर लक्ष्मण ने आपत्ति ली और कहा कि आप अपने मन में क्रोध लाइए और अपने बाणों के प्रहार से समुद्र को सुखा दीजिए। राम ने मुस्कुराकर लक्ष्मण को समझाया कि आवश्यकता पड़ी तो ऐसा भी करेंगे, लेकिन अभी अकारण क्रोध नहीं करना चाहिए।
भगवान कृष्ण ने भी अक्सर अपने जीवन में क्रोध को दूर रखने का ही प्रयास किया। कई मौके ऐसे आए जब श्रीकृष्ण का धीरज भी छूट सकता था लेकिन वे स्थिर रहे, परिस्थितियों में बहे नहीं। जरासंघ के आक्रमणों से परेशान थे, मथुरा परेशान थी लेकिन कभी क्रोध में धैर्य खोकर युद्ध में समय नहीं गंवाया। अपनी चतुरता से मथुरावासियों को द्वारिका ले गए और नया सुरक्षित नगर बसा दिया। शिशुपाल अपमान करता रहा, श्रीकृष्ण सुनते रहे। समय से पहले कभी भी उन्होंने उत्तर नहीं दिया। ना धैर्य चूका और ना कभी क्रोध में कोई निर्णय लिया।