लखनऊ। इस साल हज़रत अली का ताबूत नहीं उठाया गया, जबकि ताबूत कई सदियों से उठाया जाता रहा है। ताबूत हज़रत अली अस के नाम का उठता है। हज़रत अली की शहादत 21 रमज़ान को हुई थी। लॉकडाउन की वजह से लोग घर में ही ग़म मना रहे है।
19 रमज़ान 40 हिजरी को मुस्लिमों के खलीफा और शियाओं के पहले इमाम हज़रत अली अस पर इराक़ की मस्ज़िद ए कूफा के अंदर हमला हुआ, जिसके 2 दिन बाद 21 रमज़ान को उनकी शहादत हो गई.. ये हमला उन पर ज़ालिम अब्दुल रहमान इब्ने मुलजिम (ल) ने सुबह की फज्र (नाफिला) नमाज़ पढ़ते वक्त तलवार मारकर किया था.. इतिहास में मस्ज़िद के अंदर हमला करने की ये पहली वारदात थी, जिसे इतिहासकार पहला आतंकी हमला भी कहते हैं। तब से लेकर हर साल 21 रमज़ान का दिन हज़रत अली अस के शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है। तकरीबन 1400 साल से ज्यादा हो चुके हैं, हर साल उनके चाहने वाले उनका ताबूत निकालकर उनकी याद में नौहे, मजलिस, मरसिए पढ़ते हैं।
हज़ारों की तादात में लोग जमा होते हैं। लोग इस बार लॉकडॉउन की वजह से घर में ही गम मना रहे हैं। हज़रत अली अस की कब्र इराक़ के नजफ में है। जहां हर साल उनकी शहादत के दिन लाखों चाहने वाले पहुंचते हैं। वहीं जो लोग उनकी कब्र पर नहीं जा सकते वो अपने-अपने देश में ही रहकर जुलूस निकालकर अज़ादारी करते हैं। वहीं हिंदुस्तान में भी तकरीबन 100 साल से लखनऊ, हैदराबाद, दिल्ली समेत कई राज्यों में जुलूस निकलता है जिसमें हज़ारों की तादाद में लोग आते हैं, और अज़ादारी करते हैं।
इस्लामिक स्कॉलर और मुस्लिम धर्म गुरू कल्बे रुशेद रिज़वी कहते हैं कि शिया रोटी और पानी के बिना तो रह सकता है। लेकिन वो अज़ादारी के बिना नहीं रह सकता, क्योंकि उनकी ज़िंदगी के मकसद में से एक मकसद पैगम्बर मोहम्मद सवअ के एहलैबेत (उनके परिवार) के ऊपर हुए ज़ुल्म को कभी भूल नहीं पाना और ज़ालिम के खिलाफ आवाज़ उठाना है। जिसे वो इबादत का हिस्सा समझता है। लेकिन इस बार अपने वतन में कोरोना जैसी बीमारी की वजह से कई मासूम लोगों की जान गई है। साथ ही आम इंसान को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। इसी को देखते हुए मुल्क में अमन और चैन ज्यादा हो सके और भीड़ की वजह से ये बीमारी और ना फैल जाए इस पर सभी ने ये तय किया है कि इस बार घर पर ही रहकर ग़म मनाएं, वहीं अज़ादार ऑनलाइन मजलिस, नौहे सुनकर भी हज़रत अली अस की शहादत को याद कर रहे हैं और लॉकडॉउन का पूरा पालन भी कर रहे हैं।
मुस्लिम धर्मगुरु यासूब अब्बास का कहना है, कि इस्लाम सबसे पहले ये ही सिखाता है कि अपने वतन से मोहब्बत करें जो कि सच्चा ईमान है। अब इस वक्त घर में रहकर ही इस कोरोना से बचा जा सकता है। जो कि बहुत जरुरी है और इसी में इंसानियत भी है कि हम घरों से बाहर ना निकलें। जिससे हमारी वजह से दूसरे इंसान को परेशानी न हो. और कोरोना जैसी महामारी ना फैल सके।